एक हजार अश्वमेध यज्ञ के फलप्राप्ति के बराबर है महाकुंभ स्नान

महाकुम्भ विशेष

अश्वमेध सहस्राणि वाजपेयी शतानि च।
लक्षप्रदक्षिणा भूमे: कुम्भस्नानेन तत्फलम्।।
-विष्णुपुराण
उपरोक्त श्लोक के अनुसार एक हजार अश्वमेध यज्ञ,सौ वाजपेय यज्ञ,एक लाख बार भूमि की परिक्रमा करने से जो फल प्राप्त होता है वह फल एक बार के कुम्भ स्नान से प्राप्त है।

इसकी ख्याति में एक और श्लोक प्राप्त होता है –
सहस्रं कार्तिके स्नानं माघे स्नान शतानि च।
वैशाखे नर्मदा कोटि: कुम्भ स्नानेन तत्फलम्।।
कार्तिक में हजार बार गंगा-स्नान माघ माह में सौ बार गंगा स्नान और वैशाख मास में करोड़ बार नर्मदा स्नान का जो फल प्राप्त होता है वह एक बार कुम्भ स्नान से प्राप्त होता है।
वह कुम्भ भारत भूमि की पावन धरा के इन स्थानों पर लगता है
गंगाद्वारे प्रयागे च धारा गोदावरी तटे।
कुम्भाख्येयस्तु योगोयं प्रोच्यते शंकरादिभि:।।
अतः कुम्भ के संदर्भ में जानने की जिज्ञासा बढ़ जाती है तो आइए जानते हैं उस कुम्भ के संदर्भ में –
कुम्भ की परिभाषा को इस प्रकार व्याख्यायित कर सकते हैं – “कुं पृथिवीम् उम्भति अमृततत्वेन जलादिना पुण्यादिना वा प्रपूरयति इति कुम्भ: ” अर्थात जो पृथ्वी को अमृत पुण्यादि से पूर्ण करे वह कुम्भ है। अमृत (कलश) कुम्भ की उत्पत्ति के संदर्भ में भारतीय मनीषियों द्वारा जो जनमानस तक सूचना पहुंँचाई जाती है उसके अनुसार पुराणों में उल्लिखित समुद्र मंथन का उदाहरण दिया जाता है।


स्कन्दपुराण के अनुसार-
अथात:सम्प्रवक्ष्यामि कलशोत्पत्तिमुत्तमाम्, उत्तरेहिमवत्पार्श्वे क्षीरोदो नाम सागर:।
आरब्धं मन्थनं तत्र देवैर्दानव पूर्वकै: , मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकिम्।
मूले कूर्मं तु संस्थाप्य विष्णोर्बाहु च मन्दरे, एकत्र देवता: सर्वे बलिमुख्यास्तथैकत:।
मथ्यमाने तथा तस्मिन् क्षीरोदो सागरोत्तमे,उत्पन्नं गरलं पूर्वं शम्भुना भक्षितं च यत्।
भगवान विष्णु की प्रेरणा से देव दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया उस मंथन में मंदराचल को मंथन दण्ड बनाया गया।वासुकि नाग को रस्सी,तथा भगवान विष्णु कूर्म रूप में आधार बने। पूंँछ की ओर देवताओं ने और मुख की ओर दानवों ने पकड़ कर मंथन किया। मंथन से कालकूट विष निकला जिसे भगवान शिव ने पान कर संसार की रक्षा की और स्वयं नीलकण्ठ बन गये।


पौराणिक कथानुसार समुद्र मंथन के दौरान एक अमृत कलश भी निकला था,- अमृता पूर्ण कलशं बिभ्रद् वलय भूषित:।
स वै भगवत:साक्षाद्विष्णोरंशांश सम्भव:।। श्री मद्भागवत८/८/३४
कलशश्च समुद्भूतो धन्वंतरिकारोल्लसन् ,मुखान्तं सुधया पूर्ण: सर्वेषां हि मनोहर:।
अजितस्य पदाम्भोजकृपयैव समुद्गतम्, क्षीराब्धिसोनोद्भूतं कलशन्तेन्द्र रत्नकम्।।
चौदहवें रत्न के रूप में धन्वंतरि अमृत से पूर्ण कलश लेकर प्रकट हुए।
जिसे लेकर देवताओं एवं राक्षसों में छीना झपटी की स्थिति उत्पन्न हुई उसी क्षण देव प्रेरणा से इन्द्रपुत्र जयंत उक्त कलश को लेकर आकाश में उड़ गया जिसे प्राप्त करने के लिए दैत्यगुरु शुक्राचार्य की प्रेरणा से दैत्यों ने उसका पीछा किया,जयंत भी भागता रहा बारह दिनों (मनुष्य के बारह वर्षों)तक एक दूसरे के मध्य संघर्ष होता रहा, बाद में दैत्यों ने जयंत के हाथ से अमृत कुम्भ छीन लिया –
दृष्ट्वा तु तत्क्षणादेव महाबलपराक्रम:,जयन्तो मृतमादाय गतो देव प्रचोदित:।
देवकर्मसमालोच्यतथा दैत्यपुरोधसा,नागोच्छ्वासप्रव्यथिता दैत्या:शुक्रेण सूचिता:।
जग्मुस्ते पृष्ठतोलग्नाभीत:सोपि पलायित:,दिशो दश दिवारात्रं द्वादशाहं प्रपीडित:।
दैत्यैर्गृहीत:तद्धस्तात् तेनापि पुनरेव स:,अहं पिबेयं पूर्वं तु न त्वं चेति प्रचक्रमु:,।
एवं विवदमानेषु काश्यपेषु सुधाग्रहे,भगवान्मोहयित्वा तान् मोहिन्या विभजत् सुधाम्।
उस क्रम में उस कलस से अमृत की कुछ बूँदें छलकी-
जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया
तत्राघनुत्तये नृणां चत्वारो भुवि उच्यते
अष्टौ लोकान्तरे प्रोक्ता देवैर्गम्या न चेतरै:।
पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते।
चतु:स्थले च पतनात् सुधाकुम्भस्य भूतले।।
भूतल के जिन चार स्थलों पर अमृत गिरा था तत्सम्बन्ध में द्रष्टव्य है-
विष्णोर्द्वारे तीर्थ राजे अवन्त्यां गोदावरी तटे।
सुधाबिन्दुविनिक्षेपात् कुम्भपर्वेति विश्रुतम्।।

हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन में गिरीं और उन स्थानों को परम पवित्र पापनाशक एवं मोक्षदायक मान लिया गया जहां आज भी कुम्भ होता है। एतदतिरिक्त अन्य आठ स्थलों पर भी गिरीं वे आठ स्थल देवलोक में हैं।
देवासुर संग्राम के निस्तारण हेतु भगवान को स्वयं मोहिनी रूप धारण करना पड़ा-
कौतूहलाय दैत्यानां योषिद्वेषो मया धृत:
पश्यता सुर कार्याणि गते पीयूष भाजने। श्री मद्भागवत ८/१२/१५
मोहिनी रूप के सम्मोहन में आकर दोनों पक्ष उनकी बात मानने को राजी हो गये और यह सुनिश्चित हुआ कि पहले देवताओं को, पश्चात असुरों को अमृतपान कराया जाय । देवताओं की पंक्ति में छल पूर्वक राहु दैत्य भी आकर बैठ गया और उसे अमृत मिल गया, उसके अमृत पान करते ही सूर्य एवं चन्द्र ने उसे पहचानकर उसके दैत्य होने का भेद खोल दिया जिसके परिणामस्वरूप भगवान ने उसका तत्काल शिरोच्छेदन किया, किन्तु अमृत पान के कारण उसका धड़ एवं सिर दो भागों में विभक्त होने के बावजूद भी वह जीवित रहा ।वे ही छायाग्रह के दो रूप में राहु और केतु हुए जो आज भी समय-समय पर प्रतिशोध के भाव से अमावस्या एवं पूर्णिमा पर सूर्य तथा चंद्र को ग्रसने का प्रयास करते रहते हैं जिसे हम ग्रहणकाल कहते हैं।
हमारी भारतीय आध्यात्मिक कर्मकाण्ड परम्परा में कुम्भ को मंगल सूचक माना जाता है यही कारण है कि किसी भी पूजन में कलश पूजन का विधान है और उस घट में “कलशस्य मुखे विष्णु : कण्ठे रुद्र:समाश्रित: मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा” के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश सहित, वेदों ,समस्त तीर्थों, नदियों, सप्त समुद्रों तथा तीर्थों का आवाहन किया जाता है।
इन कुंभगत स्थानों में देवताओं की अमृत तुल्य कृपा अवश्य बरसती है तभी तो ऋषिगण अपनी साधना के अमरत्व हेतु गुप्त साधना स्थलों से निकलकर अलौकिक छवि एवं आभा को जनसामान्य के लिए सुलभ कराते हुए अनेकानेक यज्ञादि सम्पन्न करते दिखते हैं। कुम्भ के सम्बन्ध में पुराणों और अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी उल्लेख मिलता है, उस पुण्यलाभ का काल निर्धारण करते हुए आर्ष युगीन ऋषियों द्वारा, छः वर्ष पर अर्धकुंभ, बारह वर्ष पर पूर्णकुंभ एवं एक सौ चौवालीस वर्ष पर आनेवाले योग को महाकुम्भ की संज्ञा दी गई।
गंगाद्वारे/हरिद्वार कुम्भ योग के संदर्भ में-
पद्मिनीनायके मेषे कुम्भ राशि गते गुरौ
गंगाद्वारे भवेदद्योग: कुम्भनामा तदोत्तम:।।
-स्कन्द पुराण
अर्थात जिस समय बृहस्पति कुम्भ राशि और सूर्य मेष राशि पर स्थित होते हैं उस समय हरिद्वार में कुम्भ होता है।
उज्जैन कुम्भ के विषय में –
मेष राशि गते सूर्ये सिंह राशि स्थिते गुरौ।
उज्जयिन्यां भवेत् कुम्भो सदा मुक्ति प्रदायक:।।
अर्थात जिस समय सूर्य मेष राशि पर तथा बृहस्पति सिंह राशि पर होते
हैं उस समय उज्जैन में कुम्भ होता है।
नासिक / गोदावरी तट पर कुम्भ योग के लिए उल्लेख मिलता है?-
सिंह राशिं गते सूर्ये सिंह राशौ बृहस्पतौ
गोदावर्यां भवेत् कुम्भो भक्ति मुक्ति प्रदायक:।।
तीर्थराज की महिमा व कुम्भ संदर्भ में इस प्रकार के श्लोक का प्रमाण मिलता है –
माघे वृषगते जीवे मकरे चन्द्र भास्करौ
अमावस्यां तदा योग: कुम्भश्च तीर्थनायके।
– स्कन्द-पुराण
अर्थात बृहस्पति के वृष राशि में रहने तथा सूर्य व चंद्र के मकर राशि में रहने पर माघ महीने की अमावस्या को प्रयाग में कुम्भ होता है।
इसकी पुष्टि में एक दूसरा श्लोक भी प्राप्त है –
मकरे च दिवानाथे वृष राशिस्थिते गुरौ।
प्रयागे कुम्भयोगो वै माघमासे विधुक्षये।।
अर्थात सूर्य के मकर राशि में स्थित होने पर और बृहस्पति के वृष राशि में होने पर माघ मास की अमावस्या को प्रयाग में कुम्भ योग होता है।
यद्यपि माघ मास में पड़नेवाले तीन स्नानों की महिमा का प्रतिपादन करते हुए प्रयागराज के संदर्भ में युगपुरुष संत गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी अपने महान ग्रन्थ श्रीरामचरितमानस में लिखा है –
“माघ मकर गति रवि जब होई तीरथपतिहिं आव सब कोई”
अर्थात मकर संक्रान्ति के अवसर पर तीर्थराज में स्नान का विशेष महत्त्व बताया और उसके अनुपालन में संत-महात्मा, तात्कालिक ऋषिगण संक्रान्ति से शिवरात्रि पर्यंत गंगा यमुना की कछार में साधनारत रहते हुए एक सवा माह का समय व्यतीत करते हैं, जिनके अनुसरण में कुछ गृहस्थगण भी अपने को तपाते हैं, जिन्हें कल्पवासी कहते हैं।श्रद्धालुगण इस समय की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। विश्व के किसी भी देश में ऐसा अलौकिक दृश्य/मेला/जन संगम देखने को नहीं मिलता जहांँ अनिमंत्रित लाखों की संख्या में तपस्वी ,साधु-संत, कल्पवासी एवं देश विदेश के सनातन धर्म में आस्था रखनेवाला जन समुदाय जातिगत भेद भाव को भूलकर एकत्रित होता हो जिसकी व्यवस्था को सम्हालने के लिए राज सत्ता को हस्तक्षेप कर सम्हालना पड़ता हो एवं व्यवस्था में सहयोग करना पड़ता हो शायद इसीलिए कहा गया है “धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे”।
कुम्भ एवं महाकुम्भ से जुड़े तमाम रहस्य हमारे ग्रंथों में छिपे पड़े हैं जिनको उद्घाटित कर जनसमक्ष के सामने उपस्थित करना यथा ज्ञानानुसार अपेक्षित है।
पुराणों में प्राप्त आख्यानों के आधार पर देवासुर संग्राम के पश्चात से ही इसका प्रादुर्भाव माना जाता है किन्तु स्पष्ट काल गणना का उल्लेख अप्राप्त है तथापि समुद्र मंथन के पश्चात से हम मानने के लिए बाध्य हैं। समुद्र मंथन का उल्लेख शिव पुराण, मत्स्य पुराण,पद्म पुराण, भविष्य पुराण, अग्नि पुराण, और श्री मद्भागवत महापुराण आदि सभी ग्रन्थों में प्राप्त है। मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान जब अमृत कलश निकला तो देवों और असुरों में संघर्ष बढ़ गया जिसके लिए भगवान विष्णु को मोहिनी रूप धारण करना पड़ा था, राक्षसों और देवताओं के संघर्ष को देखते हुए अमृत कलश देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत को सौंपा गया जब वे कौवे के रूप में राक्षसों से कलश लेकर भागने लगे तभी कलश से कुछ बूँदें, हरिद्वार,प्रयागराज, उज्जैन , एवं नासिक में गिर पड़ीं थी।यह श्लोक भी उपलब्ध हो गान करता है –
गंगाद्वारे प्रयागे च धारा गोदावरी तटे
कुम्भाख्येस्तुयोगोयं प्रोच्यते शंकरादिभि:।
इधर यदि इतिहास पर दृष्टि डालें तो राजा हर्षवर्धन के काल से प्रमाण मिलने शुरू हो जाते हैं।उन्हीं के काल में शंकराचार्य, संन्यासी, नागाओं,संतों एवं ब्राह्मणों के लिए संगम तट पर स्नान करने की व्यवस्था की गई थी जिसका अनुपालन आज भी राजसत्ता करती आ रही है। प्राप्त ऐतिहासिक साक्ष्यों में चीनी यात्री ‘ह्वेन सांग’ ने भी अपनी भारत यात्रा के यात्रा-वृत्तांत में कुम्भ मेले का जिक्र किया है, उसने राजा हर्षवर्धन द्वारा प्रदत्त व्यवस्था की भी चर्चा की है।
प्रयागराज में महाकुंभ और मकरगत सूर्यकाल में स्नान का इसलिए भी महत्व है क्योंकि यहाँ तीन नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है यद्यपि सरस्वती का स्वरूप आज लुप्त है किन्तु समस्त सनातन ग्रंथों में इस दिव्य स्थान की महिमा का वर्णन है। शायद इसीलिए इसे तीर्थ नहीं अपितु तीर्थराज कहा गया है।
विगत वर्षों के कुंभ इतिहास पर दृष्टि डालें तो एक से एक संत महात्मा पधारते रहे हैं जिनकी साधना उपासना का कोई जोड़ नहीं प्राप्त होता वह देवराहा बाबा हों या स्वामी करपात्री जी महाराज अथवा आनन्दमयी माँ।

आज भी योगियों हठयोगियों एवं साधकों के दर्शन करने के बाद लगता ही नहीं कि हम कलियुग के प्रथम चरण में चल रहे हैं , ऐसी परिस्थिति में अपने आख्यानों पर गर्व होता है और हृदय फूला नहीं समाता।विश्वास करने के लिए हम विवश हो जाते हैं कि पुराणों की कथाएं अक्षरशः सत्य एवं वैज्ञानिक हैं। आज भी अगर कोई एक पैर पर खड़ा रह सकता, एक हाथ उठाकर रह सकता है,सिर पर पचास किलो का धर्मगत भार धारण कर अहर्निश रह सकता है। सिर्फ चाय पर जी सकता है। सिर्फ फल पर रह सकता है, सिर्फ हवा पीकर रह सकता है तो सतयुग, त्रेता, द्वापर काल की कथाओं और घटनाओं को हम किसी भी तरह नकार नहीं सकते।
प्रयागराज में गंगा की गोद(रेती) में बैठकर माघ मास में जप, तप एवं दान करने का महत्व एवं फल जहांँ कई गुना बढ़ जाता है वहीं मौनी अमावस्या में शास्त्रानुसार प्रयाग के कुम्भ स्नान में अमृत वर्षा का योग उपस्थित होता है।

डॉ.अनुरंजिका चतुर्वेदी
असिस्टेंट प्रोफेसर
श्री रंगलक्ष्मी आदर्श संस्कृत महाविद्यालय, वृंदावन, मथुरा

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