अमृत वर्षा की रात्रि : शरद पूर्णिमा : डॉ.अनुरंजिका चतुर्वेदी

राम कृष्ण तू सीता ब्रजरानी राधा।

तू वांछा कल्पद्रुम हारिणि सब बाधा।।

सर्व स्वरूपों वाली सर्व शक्ति परब्रह्म परमात्मा के रूप में जब माया में लिप्त और माया से विच्छेद करने हेतु अवतरित होकर लीला करती है तब वही काल अति विशिष्ट हो जाता है। शुक्ल पक्षीय उपासना तिथियों में नवरात्रि के पश्चात् नवरत्नों, नवग्रहों और नव निधियों से ऊपर उठकर आश्विन मास के अश्विनी नक्षत्र से युक्त पूर्णा तिथि की पूर्णिमा में वह शक्ति “सर्वंखल्विदं ब्रह्म ” की अवधारणा को पुष्ट करते हुए ब्रज की रज को शिर माथे लगाने हेतु पावन बनाने के लिए पूर्णिमा के निशा काल में कृष्ण चन्द्र द्वापर में रास नहीं अपितु महारास करते हैं। उस अलौकिक दिव्य छवि को निहारने हेतु वही नित्य प्रति उगनेवाला चन्द्रमा अपनी समस्त चन्द्रिकाओं के साथ आँखें फाड़कर दिव्य स्वरूप का दर्शन करने हेतु सम्पूर्ण स्वरूप से खड़ा हो जाता है। इसी सौन्दर्य सुख बोध का वर्णन करते हुए श्रीमद्भागवतकार व्यासजी महाराज लिखने के लिए बाध्य हो जाते हैं –

भगवानपि ता रात्रि:शरदोत्फुल्लमल्लिका।
वीक्ष्यरन्तुं मनस्चक्रे योगमायामुपाश्रिता:।।

शरद‌ ऋतु के आते ही हमारा नभ मण्डल ग्रीष्म के ताप एवं पावस के भाप से इतर हो अत्यंत स्वच्छ हो जाता है तब मनुष्य सहज ही सुख की अनुभूति करता है इसीलिए सम्भवतः योगेश्वर श्रीकृष्ण ने महारास हेतु यही उपयुक्त समय चुना। जब मनुष्य सहजावस्था में पहुंँच जाता है तो वह स्वयं को जानने के क्रम में आगे बढ़ने लगता है और स्वयं को जानना ही मनुष्य योनि का लक्ष्य है। भागवतकार व्यासजी ने रास को जिस रूप में प्रस्तुत किया है उसे सामान्य मनुष्य नहीं समझ सकता किन्तु उसको जानने के क्रम में आध्यात्म तथा ध्यान के पथ पर अग्रसरित व्यक्ति योगेश्वर श्रीकृष्ण की कृपा से अवश्य जान पाता है, तभी तो ब्रह्मा जी भी रास-दर्शन में मुग्धभाव से सर्वत्र उस परमात्मा के स्वरूप को ही देखते हैं।

हमारा शरीर ही सभी धर्मों का साधन भूत अंग है इसीलिए कहा “शरीरमाद्यम खलुधर्मसाधनम् ” यह वैदिक वाक्य हमारी उसी सामाजिक व्यवस्था को उपस्थित करता है जिसमें स्वास्थ्य को प्रमुखता दी गई है। वस्तुत: इस शरद पूर्णिमा का आध्यात्मिक पक्ष तो विशेष रूप से है ही परंतु सामाजिक रूप में लौकिक और व्यावहारिक पक्ष भी विशेष है। मान्यता अनुसार भगवान श्रीकृष्ण जब महारास में निमग्न थे उस समय चंद्रदेव आकाश से मंत्रमुग्ध लालायित होकर भगवान की लीला निहार रहे थे और इस क्रम में इतने भावविह्वल हो उठे कि उनको अपनी सुधि ही नहीं रही और वे अपनी शीतल ज्योत्स्ना के साथ पृथ्वी के अत्यंत निकट आ गये तथा उस पर अमृत वर्षा करने लगे, तबसे लेकर आज तक प्रत्येक शरद पूर्णिमा को महारास के अवसर पर चंद्रमा की किरणें उसी प्रकार अमृत वर्षा करती हैं और सांसारिक प्राणियों को विविध प्रकार के वरदान-अनुदान से परिपूर्ण करती हैं।

एक कथानक यह भी है कि महाभारत के भीषण संग्राम के पश्चात मानसिक रूप से व्यथित पांडवों ने श्रीकृष्ण के परामर्श पर द्रोपदी के साथ शरद पूर्णिमा की रात्रि को गंगा स्नान कर मानसिक संताप से मुक्ति पाई थी। शास्त्रों के अनुसार मन की उत्पत्ति चन्द्रमा से बताई गई है ” चन्द्रमा मनसो जात: ” अतः षोडश कलाओं से युक्त अमृतवर्षण करने वाले शरदचन्द्र की पवित्र शीतलता मनुष्य के शरीर एवं मन दोनों को ही शीतल कर जाती है यही कारण है कि इस रात्रि को सकारात्मकता प्रदान करने वाली तथा आरोग्यवर्धनकारी रात्रि कहा गया है क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमा की कलाएं घटती बढ़ती रहती हैं ठीक उसी प्रकार मन की अवस्थाएं भी घटती-बढ़ती रहती हैं। अतः मन की विविध दशाओं के प्रतीक के रूप में चन्द्रमा की षोडश कलाएं हैं। उसी चन्द्रमा की स्वच्छ चांँदनी में रासरासेश्वर का दर्शन होता है और यह मानव अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है जिसे “जीवात्मा परमात्मा का मिलन” कहते हैं।

अतः आवश्यकता है आज भी मनुष्यों के हृदय को चन्द्र रूपी मन के स्वच्छ चांँदनी की। क्योंकि अमृतवर्षण तभी संभव है जब नभमण्डल पूर्ण स्वच्छ हो। हृदय में भी भगवत्कृपा रूपी अमृतवर्षा भी तभी संभव है जब मन का आकाश भली-भाँति साफ हो,इसी भाव को रामचरित मानस में गोस्वामीजी पुष्ट करते हुए कहते हैं-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्रन भावा।।
उस अमृत को पाकर मनुष्य भले ही अमर न हो किन्तु उसकी भक्ति अवश्य अमरत्व को प्राप्त कर लेती है।

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