डॉ.अजीत मणि त्रिपाठी: पत्रकार एवं समालोचक
अष्ट-सिद्धि एवं नौ निधियों के स्वामी, अजर-अमर एवं परम पराक्रमी, रामकथा रुपी महामाला के महारत्न, अद्वैत उपासक, सप्त चिरंजीवियों में एक हनुमान जी महाराज इस कलिकाल में जन-जन के आराध्य देवता हैं।
सिद्धियों के प्रत्यक्ष स्वरूप होकर भी इन्होंने इनका प्रयोग उपभोक्ता की भांति न कर देवकार्य एवं राष्ट्रहित में किया है। समस्त सिद्धियां इनके समक्ष नतमस्तक होकर प्रतीक्षा करती रहती हैं कि कब हनुमान जी इन्हें सम्मानित करेंगे। दुर्गम एवं विकट परिस्थितियों में भी बुद्धिकौशल संपन्न अंजनी पुत्र नें रामकार्य, दास भाव से किया है। उनको स्वयं की सिद्धियों का कहीं अभिमान नहीं है, सर्वस्व त्याग की भावना से ओतप्रोत होने के कारण ही गोस्वामी तुलसीदास जी नें कहा है कि हनुमान जी ‘मान’ नहीं चाहते, इन्होंने अपने जीवन-चरित्र में स्वयं के ‘मान’ को कहीं भी स्थान नहीं दिया है, तभी ही रामचरितमानस की इन पंक्तियों में- ‘जय कृपाल कहि कपि चले अंगद ‘हनु’ समेत। गोस्वामी जी नें स्वयं ही ‘मान’ हटाकर उन्हें सम्मानित किया है।
चिरंजीव हनुमान जी को वरदान-
समस्त देव समुदाय का आशीष हनुमान जी को प्राप्त था। ब्रह्माजी नें हनुमान जी को वर देते हुए कहा था- तुम इच्छानुसार, रूपधारण, चाहने पर मंद अथवा तीव्र गति से अबाधित भ्रमण कर सकोगे। (वा.रा.7/36/24) पवन पुत्र नें भी माता अंजना के भावी पुत्र के संदर्भ में कहा था-तेरा यह पुत्र मेरे ही समान लांघने एवं छलांग लगाने वाला होगा। (वा.रा.4/66/19)।
माता जानकी नें भी हनुमान जी को वर देते हुए कहा था- तुम अष्ट-सिद्धि नवनिधि के दाता बनोगे। (हनु.चा)
अष्टसिद्धियों की प्राप्ति और उनके प्रकार-
योग-दर्शन के विभितिपाद अध्याय में अष्ट सिद्धियों की चर्चा है। समस्त सिद्धियों की प्राप्ति का मूल-मंत्र संयमित जीवन ही है। सच्चे साधकों को सिद्धियों का उपयोग पूज्या मानकर करना चाहिए न कि भोग्या बनाकर। इन सिद्धियों पर सर्वत्र-सर्वदा विनीत भाव बनाए रखना चाहिए। योग- दर्शन के विभितिपाद के 45 वें सूत्र के अनुसार सिद्धियां आठ प्रकार की होती हैं।
1-अणिमा- परमाणु रुप अथवा शरीर को सूक्ष्म कर लेना।
2- लघिमा- रुई के समान हल्कापन बना लेना।
3- महिमा- शरीर को वृहदाकार कर लेना।
4- प्राप्ति- इच्छित पदार्थ की प्राप्ति, (अलब्ध वस्तु प्राप्ति)।
5- प्राकाभ्य- इच्छा से बाधा न होना, (अथवा लक्ष्य पूरा होना)।
6- वशित्व- सर्व भूतों पर प्रभुता।
7- ईशित्व- भूत-भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति और विनाश- सामर्थ्य।
8- यत्रकामावसायित्व- प्रत्येक संकल्प का पूरा होना।
हनुमान जी जन्म सिद्ध व्रह्यचर्य थे। वह कपिंद्र सचिव (सुग्रीव के) होते हुए भी भोग विलास से दूर ये राम नाम में हमेशा रमे रहते थे। वानर जाति में भी बहुपत्नी प्रथा प्रचलित होते हुए भी हनुमान जी इसके अपवाद थे। चित्त में विकार उत्पन्न करने वाले कारण उपस्थित होने पर भी जो निर्विकार रहते हैं वे ही ‘धीर’ कहे जाते हैं। (कुमारसंभव-1/ 59) अपनी इंद्रियों को वश में करना आसान नहीं, जो इन्हें वश में कर लेता है वही ‘महावीर’ कहलाता है।
सिद्धियों का प्रयोग-
अणिमा- इस सिद्धि का प्रयोग हनुमान जी ने लंकापुरी में द्विदंश (मच्छर) के रूप में प्रवेश करते समय किया था। जिससे प्रहरियों को आगमन का भान तक नहीं हुआ। (रा.च.मा.5/4/10)
लघिमा- भारहीनता-जैसी सिद्धि का प्रयोग इन्होंने लंका में शिंशिपा वृक्ष से संपूर्ण वाटिका का अवलोकन करने के पश्चात श्रीरामचरित का गुणगान करते हुए, इस वृक्ष के पत्रभाग से उतर कर माता सीता के सामने नत भाव से खड़े हो गए। (आ. रामायण/ सु.का.3/19)
वहीं विशाल शरीर होने के बाद भी एक महल से दूसरे महल पर वह बड़ी आसानी से चढ़ जाते थे, मानों शरीर में कोई भार ही न हो।( रा.चा.मा./ सु.का. 5/1)
महिमा- हनुमान जी नें अपने बल- पराक्रम का ज्ञान होने पर महेंद्र पर्वत पर समुद्रोल्लंघन के पूर्व त्रिविक्रम भगवान के समान पर्वताकार रूप दिखलाया था। (अध्यात्म रा./ सु.का. 1/5)। पुनः समुद्रोल्लंघन में परीक्षाकार्यिणी सुरसा जब अपने मुंह का विस्तार करती गई, तो इन्होंने भी अपने शरीर का क्रमशः विस्तार किया। वहीं अशोक वाटिका में भी सीता माता द्वारा संदेह व्यक्त करने पर अपना अति विशाल एवं राक्षसों में भय उत्पन्न करने वाला रूप दिखलाया।
प्राप्ति एवं प्राकाभ्य- मारुति नंदन की एकमात्र इच्छा प्रभु श्रीराम दर्शन की ही थी, इन्हें ऋष्यमूक पर्वत पर अपने आराध्य के दर्शन हुए। दूसरे लंका में सीता माता की अन्वेषण-जैसे राम कार्य कार्य का लक्ष्य इन्होंने ही पूर्ण किया।
वशित्व-ईशित्व- पंचभूतों एवं भौतिक पदार्थों का स्वयं वश में कर लेना और उनकी उत्पत्ति एवं विनाश की सामर्थ्य जैसी सिद्धियां हनुमानजी के सामने सदा नतमस्तक रहती थी। हनुमान जी को इसलिए भूतजयी कहा जाता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश- इन सभी तत्वों नें इन्हें यथोचित एवं समयोचित सहयोग प्रदान किया।
यत्रकाभावसायित्व-
इसमें साधक अपने संकल्पानुसार अपने समस्त कार्य पूर्ण कर लेता है। यदि हम हनुमत-चरित्र का मनन करें, तो पाएंगे कि दुष्कर कार्य भी इन्होंने बड़ी आसानी से पूर्ण किए यथा- सीता माता का अन्वेषण, संजीवनी का ले आना, अहिरावण-वध इत्यादि।
बाल्यकाल में भी हनुमान जी सूर्यदेव को अरुणोदय के समय का फल समझकर अपनी क्षुधापूर्ति बुझानी चाही और पवन गति से उड़ चले। (आ.रा. कि.का. 9/19)
ग्रंथातर उपरोक्त सिद्धियों में ‘गरिमा’ नामक सिद्धि की भी चर्चा मिलती है। जिसमें साधक अपने शरीर को लोहे के समान भारी बना सकता है
महाभारत के प्रसंग में हनुमान जी नें गरिमा नामक सिद्धि का प्रयोग गंधमादन में किया था। जिसमें भीमसेन, हनुमान जी के पूंछ को टस से मस नहीं कर पाए।( महाभारत 03 /147/ 15- 16)
पुनः हनुमान जी के शरीर भार से पर्वत भी पृथ्वी में धंस जाते थे। जेहि पर पग देई हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता। ( रा.च.मा. सु.का.)।
इन सिद्धियों के अतिरिक्त हनुमान जी नव निधियों पर भी समान अधिकार रखते थे । अमरकोश 1/1/71 टीका के अनुसार नौ निधियों में महापद्म, पद्यम्,शंख, मकर, कच्छप,मुकुंद,कुंद,नील एवं खर्व का का वर्णन है। मनुष्य लोक में मात्र नील एवं खर्व जैसी सांख्यिक निंधियां ही लोक व्यवहृत होती है। श्रीराम कृपा से इन्हें वह पदार्थ प्राप्त था जो इन नव निधियों से भी अधिक अमूल्य,असंख्य एवं अप्रमेय थीं। वही माता जानकी की कृपा से इनके पास समस्त भोगों के उपस्थित होने का वरदान प्राप्त था। (वा.रा./यु.का. 16/15-16)।
अतुलनीय भंडार के स्वामी होने पर भी इन्हें रामदास कहलाना ही सर्वाधिक अच्छा लगता है।
यशोगान- इनका यशोगान आगम -निगम में समान रूप से मिलता है ।यह कलिकाल के तारक एवं जन-जन के देव हैं । स्वामीसेवा ,समाजसेवा ,कर्तव्यनिष्ठा ,निराभिमानता के यह दुर्लभ एवं आदर्श उदाहरण हैं। इनकी निष्काम सेवा एवं अनुकंपा से बल,यश ,धैर्य ,निर्भयता,आरोग्यता , विवेक ,वाक्पटुता-जैसी दैवीय गुणों का संचार होता है ,जो स्वयं और राष्ट्र के बहुविध कल्याण के लिए परमावश्यक है।